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“मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।” काकोरी कांड में पकड़े जाने पर मुकदमे के दौरान एक दिन गलती से जज द्वारा ‘मुजरिम’ की जगह ‘मुलाजिम’ कहे जाने पर राम प्रसाद बिस्मिल ने यह शायरी अदालत में कही थी जिसका अर्थ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इसपर जज से कुछ कहते नहीं बना. बहुत कम लोग जानते हैं कि राम प्रसाद बिस्मिल एक देशभक्त क्रांतिकारी के साथ ही एक उच्च कोटि के कवि भी थे. लोकप्रिय ‘सारे जहां से अच्छा’ देशभक्ति गीत तो आपने सुना ही होगा. कुछ को पता होगा पर कुछ को शायद पता न हो कि यह गीत रामप्रसाद बिस्मिल की ही कृति है. इसके अलावे भी रामप्रसाद बिस्मिल ने कई कविताएं और गीत लिखे. पर देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले भारत मां के ऐसे वीर सपूत के हाथों में बंदूक और बारूद के साथ कलम भी होगा. वर्ष १९८५ में विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक भारतीय प्रतिनिधि ने अपने लेख के साथ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की कुछ लोकप्रिय कविताओं का द्विभाषिक काव्य रूपान्तर (हिन्दी-अंग्रेजी) में प्रस्तुत किया था ताकि हम हिंदी के पाठक भी उन रचनाओं का आनन्द ले सकें जिनमें से कुछ आपको यहां पढ़्ने को मिलेंगे। हर कविता के साथ इसके संबंध में और भी जानकारियां होंगी ताकि आप बिस्मिल की कविताओं के साथ उन्हें और उनके भावों को भी जान सकें
बिस्मिल की तड़प
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !
काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !
आख़िरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प ,
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या !
गोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी इस गजल (gazal) में प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने अपने साथियों को सन्देश भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना सिर्फ पछतावे के और कुछ न मिलेगा.
क्रमश:
भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, हिंदी साहित्य संगोष्ठी, काकोरी कांड (kakori kand)
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