काव्य ब्लॉग मंच
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मैं गांव का
वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
सभी तर्क-वितर्क उसे खारिज करते हैं
पर वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
बुरे होने के सभी लक्षण हैं
सिगरेट ही नहीं वह शराब भी पीती है
अपने शर्तों पर देखें
तो है उसकी बिखरी बेतरतीब जिंदगी।
पर वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
उसे खुशी है, अपने होने पर गर्व है
एक शून्य को खोने और एक शून्य को पाने का फर्क है
ऐसा वह बताती नहीं पर शायद ये उसका तर्क है
फिर भी कोई फांस है
पर वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
वह बहुत दूर का है देख लेती
पास के लिए ऑंखें मिचमिचाती है
लगता है ऊटपटांग ही खाती है
पर वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
नहीं कह सकता क्या
पर कोई बात है जो खटकती है
इसीलिये वह नहीं पास फटकती है
पर वह अच्छी लगती है
शहर की लड़की।
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